सबके जीवन में बचपन की यादें एक खुशनुमा सपने की तरह होतीं है. बचपन की कई किस्से कहानियां कुछ ऐसी होतीं हैं कि आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत तक बन जातीं है....कुछ ऐसी ही कहानी है छोटे से बच्चे नारु की. उस पर बनी एक आधे घंटे की एक फिल्म 'चलो जीते हैं' ने खचाखच भरे ऑडिटोरियम में दॆखने वालों को भावुक कर दिया....चलो जीते हैं', यह फिल्म बनी है पीएम नरेंद्र मोदी के बचपन में घटी घटनाओं पर. ..लक नारु यानी नरेन्द्र मोदी स्वामी विवेकानंद से प्रभावित होकर अपने शिक्षक, माता–पिता और हर मिलने वाले से एक ही सवाल करते नजर आते हैं कि आप किसके लिए जीते हैं? एक बच्चा जो रोज सुबह गुजरात के छोटे वडनगर स्टेशन पर अपने पिता के साथ चाय बेचता है वो अपने जीवन का मकसद ढूंढ रहा है. ये सवाल तो हर व्यक्ति अपने आप से कर सकता है कि आप किसके लिए जीते हो. इस शार्ट फिल्म का दूसरा रोचक पहलू है बालक नारु का अपनी क्लास से एब्सेंट एक बच्चे को देख कर द्रवित हो जाना. न तो उस गरीब बच्चे की मां के पास फीस के पैसे हैं और ना ही स्कूल की ड्रेस. ये देख कर कैसे नारु अपने मित्रों के साथ एक नाटक का मंचन करता है जिसमें संदेश भी यही होता है कि जात-पात की कुरीति कैसे समाज को पीछे धकेल रही है.......पूरी फिल्म का असली हीरो है नारू यानि नरेन्द्र मोदी के बचपन का किरदार निभाने वाले बाल कलाकार ध्रुव का. उसकी एक्टिंग की तारीफ करने में उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू भी पीछे नहीं रहे. इस फिल्म का पिछले दो दिनों में एक बार राष्ट्रपति भवन में और दूसरी बार संसद भवन परिसर मे मंचन हो चुका है.
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