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बुधवार, फ़रवरी 10, 2021

यूपी के दो डाॅनों की अदावत जिसने अपराध को बनाया अपना ईतिहास

 


गैंग्स ऑफ़ वासेपुर तो आपने देखी ही होगी. उतने ही खतरनाक तरीके से काम करने वाले गैंग्स बनारस, मऊ, गाजीपुर और जौनपुर में 2009-10 तक पूरी पॉलिटिक्स पर हावी थे. ये वो दौर था, जब मुख़्तार अंसारी का कारवां निकलता था तो लाइन से 19-20 SUV गुज़रती थीं. सारी गाड़ियों के नंबर 786 से ख़तम होते थे. किसी की क्या मजाल कि पूरे शहर का भारी ट्रैफिक उन्हें 2 मिनट भी रोक सके. इन इलाकों में पान, चाय की दुकान पर बैठे चचा लोग बता देंगे कि मुख़्तार अंसारी जब चलता था, तो बॉडीगार्ड समेत अपने पूरे गैंग में सबसे लंबा दिख जाता था. अब मुख़्तार अंसारी की फैमिली हिस्ट्री सुनेंगे तो 2 मिनट बाद पता चलेगा कि आपका मुंह खुल गया था. इनके दादाजी थे कांग्रेस के कभी प्रेसिडेंट रह चुके मुख़्तार अहमद अंसारी. इनके भाई अफज़ल 4 बार कम्युनिस्ट पार्टी से MLA रह चुके हैं और एक बार समाजवादी पार्टी से. अंसारी का कहना है कि इनके अब्बा और दादाजी फ्रीडम फाइटर थे. साथ ही चाचा और दादाजी नेहरू, सुभाष चन्द्र बोस और गांधीजी के भी काफ़ी करीब थे. चाचा हामिद अंसारी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के वीसी भी रह चुके थे. पॉलिटिकल करियर की बात करें तो मुख़्तार की शुरुआत भी गैंग्स ऑफ़ वासेपुर टाइप ही थी. 


कोयला, रेलवे, शराब का ठेका, गुंडा टैक्स यही सब. जब पूर्वांचल में 1970 के दौर में कई सरकारी योजनाएं लाईं गईं, तो उनके ठेके हथियाने की होड़ में कई गैंग भी उभरने लगे. मुख़्तार मकनु सिंह के गैंग से ताल्लुकात रखता था. दूसरी तरफ साहिब सिंह का गैंग था. सैदपुर में एक प्लॉट को लेकर दोनों गैंग्स की भिड़ंत हुई और यहीं से यह दुश्मनी शुरू हो गई उधर साहिब सिंह गैंग से अलग होकर ब्रजेश सिंह गाजीपुर में फ्रीलांसठेकेदारी और गुंडागर्दी करने लगा. यहां फिरौती, रंगदारी, किडनैपिंग, और करोड़ों की ठेकेदारी को लेकर मुख़्तार और ब्रजेश सिंह के गैंग में भिड़त होती रही. 1995 के करीब मुख़्तार अंसारी पॉलिटिक्स में उतर आया और चार बार मऊ से MLA बना. 


पहला चुनाव बसपा से और आगे दो निर्दलीय. 1990 से 2008 के करीब तक बनारस, गाजीपुर और जौनपुर दोनों गैंग की दुश्मनी के बीच अपराध का गढ़ बन गया. उस ज़माने में बनारस-जौनपुर के लोगों को क्राइम के मामले में बॉम्बे की फीलिंग आती थी. और तो और कई कहानियां स्कूली लड़कों के जाने-अनजाने इस गैंगवार में घुस जाने और यहां तक कि कट्टा-वट्टा रखने की भी है…. लड़की की शादी के लिए पैसा चाहिए, लड़के को सरकारी नौकरी दिलानी हो या कोई सरकारी ऑफिस में बार-बार दौड़ा रहा हो, तो आम आदमी मुख़्तार के पास जा सकता था. और तो और लड़की की शादी में दूल्हा कतरा रहा हो तो दूल्हा उठवाने तक का काम मुख्तार से हाथ जोड़कर करवा सकता था.मऊ, बनारस और गाजीपुर में बुनकर उद्योग के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी भारी बिजली कटौती. मुख़्तार ने इस मामले को सीरियसली लिया और कुछ ही दिनों में ये समस्या काफी हद तक सुलझ गई. इसके अलावा इसमें भी चचा लोग की राय जानना चाहें तो मुख़्तार बड़ा क्रिमिनल था, मार-काट करता था, लेकिन आम आदमी का कुछ नहीं बिगाड़ता था, बल्कि बड़े पॉलिटिकल दांव-पेच के बीच उनका भला ही हो जाता था.


2002 में ब्रजेश सिंह और मुख़्तार अंसारी की भयानक लड़ाई में मुख़्तार गैंग के तीन लोग मारे गए. ब्रजेश सिंह ज़ख़्मी हो गया और उसके मरने की खबर आई. लेकिन महीनों तक किसी को कानोंकान खबर नहीं हुई कि ब्रजेश सिंह ज़िन्दा है. और उसके वापस न आने तक मुख़्तार का वर्चस्व पूरा था. फिर ब्रजेश सिंह के वापस आने के साथ इस कहानी में एक तीसरी कड़ी जुड़ गयी, जो थी बीजेपी MLA कृष्णानंद राय की. जिन्होंने मुख़्तार और उसके भाई को 2002 में उत्तर प्रदेश चुनाव में हरा दिया. इसमें ब्रजेश सिंह ने उनको समर्थन दिया. अब गाजीपुर-मऊ इलाके में हिंन्दू-मुस्लिम वोट बैंक बनने लगे और आए दिन सांप्रदायिक लड़ाइयां होने लगीं. ऐसे ही एक मामले में मुख़्तार गिरफ़्तार हो गया…. 2005 में मुख़्तार जेल में था, जब कृष्णानंद राय को उसने खुली सड़क पर मरवा दिया. AK-47 से करीब 400 गोलियां चलीं और, कृष्णानंद राय समेत सात लोग मारे गए. उन सात लाशों पर 67 गोलियों के निशान थे. दिन-दहाड़े ऐसी घटना से बीजेपी के खेमे में दहशत फैल गई. FIR दर्ज हुई, लेकिन वहां के SP ने इस मामले में कुछ भी करने से इनकार कर दिया. और तो और बीजेपी के कुछ बड़े नेताओं की मांग के बावजूद सरकार CBI जांच कराने से कतरा रही थी. हमारे क्या, सबके चचा की हालत ख़राब हो गई थी. CBI ने बढ़ते दबाव के जवाब में केस को छोड़ दिया. फिर कृष्णानंद राय की पत्नी ने दोबारा FIR फाइल की और 2006 में जांच शुरू हो पाई. 2006 में ही शशिकांत राय की हत्या कर दी गई, जो इस मामले में गवाह थे. शशिकांत राय ने मुख़्तार और उसके साथी मुन्ना बजरंगी के गुर्गों की पहचान कर ली थी. पुलिस ने इसे आत्महत्या करार दिया और मामला रफ़ा दफ़ा हो गया….. कृष्णानंद राय की हत्या के बाद 


ब्रजेश सिंह गाजीपुर-मऊ इलाके से फ़रार हो गया. 2008 में वह ओडिशा से गिरफ़्तार कर लिया गया और कुछ समय बाद प्रगतिशील मानव समाज पार्टी का हिस्सा बन गया. 2008 में मुख़्तार अंसारी ने बसपा की ओर वापस रुख़ किया और दावा किया कि उसे अपराध के केस में फंसाया गया था. मायावती ने मुख़्तार को गरीबों का मसीहाबताया और ज़ोर-शोर से चुनाव प्रचार शुरू हो गया.

यही वो वक्त था, जब मुख़्तार की रॉबिनहुडइमेज पर बसपा ने बहुत ज़ोर दिया. 2009 के लोक सभा चुनाव में मुख़्तार बनारस से खड़ा हुआ और बीजेपी के मुरली मनोहर जोशी से हार गया. लेकिन गज्जब बात तो यह है कि मुख़्तार ने ये पूरा चुनाव जेल के अंदर से ही संभाल लिया. मुख़्तार जब गाजीपुर के जेल में था तभी एक दिन पुलिस रेड में पता चला कि उसकी ज़िंदगी बाहर से भी ज़्यादा आलीशान और आरामदायक चल रही है. अंदर फ्रिज, टीवी से लेकर खाना बनाने के बर्तन तक मौजूद थे. तब उसे मथुरा के जेल में भेज दिया गया…. फिलहाल मुख़्तार अंसारी और ब्रजेश सिंह, दोनों जेल में हैं और बाहर पूर्वांचल इलाके में थोड़ी शांति है. हालांकि चचा लोग की लोक कथाओं के अनुसार, दोनों जेल में अपनी मर्ज़ी से टिकें हैं, 2008-09 के करीब दुश्मनी अपनी चरम सीमा पर थी, इसलिए जेल सुरक्षित जगह बन गई. गैंगस्टर की कहानी बड़े चटखारे ले कर सुनाने वाले लोग, एक्सपर्ट सा चेहरा बना कर बताते तो यही थे कि उस दौरान अगर कहीं कोई एक बाहर आ जाता तो दूसरा उसे पक्का ठुकवा देता. मार्च 2016 में ब्रजेश सिंह रिकॉर्ड वोटों से जीतकर यूपी में MLC हो गया. उधर मुख्तार अंसारी कौमी एकता दल का बीएसपी में विलय कर विधायक बन गए. भले ही मुख्तार फिलहाल अस्पताल में हों, लेकिन उनकी ताकत का अंदाजा इस बात से आसानी से लगाया जा सकता है कि एसजीपीजीआई जैसे अस्पताल में तीमारदारों की कुर्सियों पर मुख्तार अंसारी का कब्जा बताया जा रह है. 

 

 

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